7 मार्च 2006 सायं 6:30 के आस पास मैं लंका वाराणसी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिंघ द्वार पर था। वहाँ मैं अपने एक उड़िया मित्र को उड़ीसा जाने के लिये छोड़ने आया था। तभी एक विस्फ़ोट की आवाज़ सुनायी दी। और अगले दो मिनटों में ही भगदड़ मच गयी। पता करने में पता चला कि संकट मोचन मंदिर तथा रेल्वे स्टेशन परिसर में विस्फ़ोट हो गया। मेरे मित्र का जाना टल गया।
मैं और मेरा मित्र एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े थे। हमने निकट ही मित्र के कक्ष में समान रखवाया। और मैं अपनी सायकिल से अपने छत्रावास की ओर चल दिया। का हिं वि वि में सभी छत्रावास एक ही मार्ग पर स्थित हैं और मेरा छत्रावास(विश्वकर्मा) सबसे अंत में था। मैं सभी छात्रावासों में अपने मित्रों को वि वि स्थित अस्पताल, स्वयंसेवी वेष में पहुंचने की सूचना देते हुए अपने कक्ष से अपना वेष पहन कर अस्पताल पहुँचा।
तब 7:10 सायं का समया होगा। वहाँ 70 से अधिक स्वयंसेवक पहुंच कर सुरक्षा से लेकर वार्डब्वाय का कार्य सम्भाल चुके थे। हमारे समक्ष सबसे पहली चुनौती आने वाले मरीज़ों को प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराना था। वहां स्थानीय निवासियों जिनमें कुछ परिजन भी थे, की काफ़ी भीड़ भी थी। जो अपनों से मिलने को, उनके शुभ क्षेम जानने के लिये आतुर थे। इस भीड़ को नियंत्रित करना, एवं उन्हे अस्पताल में उपस्थित मरीज़ों के बारे में सूचना देना, परिजनों को मरिज़ों से मिलवना दूसरी बड़ी चुनौती थी।
उस समय के कुछ परिदृश्य आज भी मेरी आँखों की नींद उदा देते है। उनमें से कुछ:
वहाँ शल्य कक्ष (आपरेशन थियेटर) के बाहर एक महिला एक कोने में बैठी थी। उसके बायें पैर से खून बह रहा था। वह उससे अनजान सी, आँख बंद किये, हाथ जोड़े हुए, बस यही कह रही थी - "माँ बचा लो - माँ बचा लो"। उसका एकलौता 4-5 वर्ष का बेटा शल्य कक्ष में था। मैने वहीं पर उसकी(महिला) मर्हम पट्टी करवायी। 2 घंटे बाद उसके बेटे को आई सी यू में ले जाया गया। जहाँ वह 12 दिन कोमा में रहा। हर बार जब मैं अस्पताल जाता था, उससे जरूर मिलता था। उसकी माँ को देखते ही उनकी वही सूरत याद आ जाती थी। आई सी यू में परिजनों को प्रवेश निशेध था, फ़िर भी हम लोग बीच-बीच में लोगों को रोगियों से मिलवाते थे।
वह माँ जब अपने बेटे के बारे में पूछती थी तो मैं निरुत्तरित हो जाता था। 12 दिन बाद वह बच्चा पंच तत्वों में विलीन हो गया। आज भी माँ का वह चेहरा आँखों की नींद छीन लेता है।