यह वक्त नही है रोने का, यह वक्त है निर्णय लेने का।

यह वक्त नही है रोने का, यह वक्त है निर्णय लेने का।

Friday, March 22, 2013

भारत माँ का संताप




प्रसव वेदना से पीड़ित हो, जो नारी चिल्लाती है।
उससे अधिक वेदना वो, केवल उस क्षण ही पाती है।।

जब उसके बच्चे को कोई, क्षणिक कष्ट भी होता है।
माता का अंचल जलता है, नयन बरसता रहता है।।
माता का अंचल जलता है, नयन बरसता रहता है।।

इस वेदना की पराकाष्ठा, फ़िर कौन बतलायेगा।
जब इसके दो-दो बच्चों में, कोई झगड़ा करवाएगा।।
जब इसके दो-दो बच्चों में, कोई झगड़ा करवाएगा।।


बच्चे तो बच्चे ही हैं, कुछ भोले कच्चे ही हैं।
मुगलों ने बहकाया था, अंग्रेजों ने लड़वाया था।।
फ़िर बाँटो और राज करो की, गाड़ी खूब चलाया था।।


ड्राइवर बदल बदल कर देखो, गाड़ी वही चलाते हैं।
कहीं देश के नाम पे बाँटे, कहीं जाति को गाते हैं।।
कहीं जाति के नाम पे बाँटे, कहीं देश को गाते हैं।।

ज्ञान चक्षु यदि खुल गये हों तो, 'नलिनसुत' की बात सुनो।
भारत माँ के सब बेटे मिल, माता के संताप हरो।।
भारत माँ के सब बेटे मिल, माता के संताप हरो।।


Wednesday, November 12, 2008

मालेगांव जांच प्रकरण: एक जांच या षणयंत्र

मेरे विचार से यह जांच नही अपितु बांटो और राज करो की गंदी राजनीति का दुष्परिणाम है।

खुद को सेक्युलर कहने वाले राजनैतिक दलों ने पिछले प्रांतीय चुनावों में अपने घटते जनधार को देख कर साम्प्रदायिक आतंकवाद की कुटिल कूटिनीति का प्रयोग किया है। महाराष्ट्र में चाचा भतीजे द्वारा फ़ैलायी गयी क्षेत्रीय ध्रुवीकरण की राजनीति से बंटे वोटों को एकत्रित करने का इससे अधिक कुत्सित प्रयास नही हो सकता।

मुम्बई, भारत की आर्थिक राजधानी में 12 मार्च 1993 में मरने वालों की संख्या 257(आधिकारिक) थी। इस सिलसले में आरोपी 129 लोगों में 100 लोगों को न्यायालय ने आरोपी ठहराया। इन 100 लोगों में अधिकांश(जिनमें मुख्य आरोपी टाइगर मेनन एवं दाऊद इब्राहिम भी शमिल हैं। ) आज भी फ़रार हैं। 11 अगस्त 2006 को शरद पवार महारष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया था कि किस प्रकार उन्होने जनता को 93 के विस्फ़ोटों के बारे में, अपनी सेक्युलर छवि(वोट बैंक) बनाये रखने के लिये गलत जानकारी दी और विस्फ़ोटों के तथ्यों को तोड मरोड कर प्रस्तुत किया।

मालेगांव प्रकरण में 6 लोगों की मृत्यु हुई तो उसके लिये 6 से ज्यादा गिरफ़्तरी की गयी। सथ में बिना न्यायालय के निर्णय के ही आरोपियों को न केवल दोषी ही नही ठहराया गया है अपितु मीडिया के माध्यम से हिंदू आतंकवाद जैसा दुष्प्रचार भी किया गया है।

इस ध्रुवीकरण की राजनीति ने समाज को ही नही, अपितु भारतीय सेना जैसे राष्ट्रीय संगठन को भी हिंदू आतंकवाद की सेना में घुसपैठ जैसे शब्दों से ध्रुवीकृत करने का कुत्सित प्रयास किया गया है।

मैं किसी भी तरह की जांच के विरुद्ध नही हूँ लेकिन भारत की अखंडता और सम्प्रभुता के राजनैतिक स्वार्थ के बलिबेदी पर चढ़ने के सर्वथा विरुद्ध हूँ।

Monday, June 2, 2008

संकटमोचन बम विस्फ़ोट और माँ ..... मेरी आत्मकथा के कुछ पृष्ठ

7 मार्च 2006 सायं 6:30 के आस पास मैं लंका वाराणसी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिंघ द्वार पर था। वहाँ मैं अपने एक उड़िया मित्र को उड़ीसा जाने के लिये छोड़ने आया था। तभी एक विस्फ़ोट की आवाज़ सुनायी दी। और अगले दो मिनटों में ही भगदड़ मच गयी। पता करने में पता चला कि संकट मोचन मंदिर तथा रेल्वे स्टेशन परिसर में विस्फ़ोट हो गया। मेरे मित्र का जाना टल गया।
मैं और मेरा मित्र एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े थे। हमने निकट ही मित्र के कक्ष में समान रखवाया। और मैं अपनी सायकिल से अपने छत्रावास की ओर चल दिया। का हिं वि वि में सभी छत्रावास एक ही मार्ग पर स्थित हैं और मेरा छत्रावास(विश्वकर्मा) सबसे अंत में था। मैं सभी छात्रावासों में अपने मित्रों को वि वि स्थित अस्पताल, स्वयंसेवी वेष में पहुंचने की सूचना देते हुए अपने कक्ष से अपना वेष पहन कर अस्पताल पहुँचा।
तब 7:10 सायं का समया होगा। वहाँ 70 से अधिक स्वयंसेवक पहुंच कर सुरक्षा से लेकर वार्डब्वाय का कार्य सम्भाल चुके थे। हमारे समक्ष सबसे पहली चुनौती आने वाले मरीज़ों को प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराना था। वहां स्थानीय निवासियों जिनमें कुछ परिजन भी थे, की काफ़ी भीड़ भी थी। जो अपनों से मिलने को, उनके शुभ क्षेम जानने के लिये आतुर थे। इस भीड़ को नियंत्रित करना, एवं उन्हे अस्पताल में उपस्थित मरीज़ों के बारे में सूचना देना, परिजनों को मरिज़ों से मिलवना दूसरी बड़ी चुनौती थी।
उस समय के कुछ परिदृश्य आज भी मेरी आँखों की नींद उदा देते है। उनमें से कुछ:
वहाँ शल्य कक्ष (आपरेशन थियेटर) के बाहर एक महिला एक कोने में बैठी थी। उसके बायें पैर से खून बह रहा था। वह उससे अनजान सी, आँख बंद किये, हाथ जोड़े हुए, बस यही कह रही थी - "माँ बचा लो - माँ बचा लो"। उसका एकलौता 4-5 वर्ष का बेटा शल्य कक्ष में था। मैने वहीं पर उसकी(महिला) मर्हम पट्टी करवायी। 2 घंटे बाद उसके बेटे को आई सी यू में ले जाया गया। जहाँ वह 12 दिन कोमा में रहा। हर बार जब मैं अस्पताल जाता था, उससे जरूर मिलता था। उसकी माँ को देखते ही उनकी वही सूरत याद आ जाती थी। आई सी यू में परिजनों को प्रवेश निशेध था, फ़िर भी हम लोग बीच-बीच में लोगों को रोगियों से मिलवाते थे।
वह माँ जब अपने बेटे के बारे में पूछती थी तो मैं निरुत्तरित हो जाता था। 12 दिन बाद वह बच्चा पंच तत्वों में विलीन हो गया। आज भी माँ का वह चेहरा आँखों की नींद छीन लेता है।