यह वक्त नही है रोने का, यह वक्त है निर्णय लेने का।

यह वक्त नही है रोने का, यह वक्त है निर्णय लेने का।

Monday, June 2, 2008

संकटमोचन बम विस्फ़ोट और माँ ..... मेरी आत्मकथा के कुछ पृष्ठ

7 मार्च 2006 सायं 6:30 के आस पास मैं लंका वाराणसी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिंघ द्वार पर था। वहाँ मैं अपने एक उड़िया मित्र को उड़ीसा जाने के लिये छोड़ने आया था। तभी एक विस्फ़ोट की आवाज़ सुनायी दी। और अगले दो मिनटों में ही भगदड़ मच गयी। पता करने में पता चला कि संकट मोचन मंदिर तथा रेल्वे स्टेशन परिसर में विस्फ़ोट हो गया। मेरे मित्र का जाना टल गया।
मैं और मेरा मित्र एक स्वयंसेवी संस्था से जुड़े थे। हमने निकट ही मित्र के कक्ष में समान रखवाया। और मैं अपनी सायकिल से अपने छत्रावास की ओर चल दिया। का हिं वि वि में सभी छत्रावास एक ही मार्ग पर स्थित हैं और मेरा छत्रावास(विश्वकर्मा) सबसे अंत में था। मैं सभी छात्रावासों में अपने मित्रों को वि वि स्थित अस्पताल, स्वयंसेवी वेष में पहुंचने की सूचना देते हुए अपने कक्ष से अपना वेष पहन कर अस्पताल पहुँचा।
तब 7:10 सायं का समया होगा। वहाँ 70 से अधिक स्वयंसेवक पहुंच कर सुरक्षा से लेकर वार्डब्वाय का कार्य सम्भाल चुके थे। हमारे समक्ष सबसे पहली चुनौती आने वाले मरीज़ों को प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराना था। वहां स्थानीय निवासियों जिनमें कुछ परिजन भी थे, की काफ़ी भीड़ भी थी। जो अपनों से मिलने को, उनके शुभ क्षेम जानने के लिये आतुर थे। इस भीड़ को नियंत्रित करना, एवं उन्हे अस्पताल में उपस्थित मरीज़ों के बारे में सूचना देना, परिजनों को मरिज़ों से मिलवना दूसरी बड़ी चुनौती थी।
उस समय के कुछ परिदृश्य आज भी मेरी आँखों की नींद उदा देते है। उनमें से कुछ:
वहाँ शल्य कक्ष (आपरेशन थियेटर) के बाहर एक महिला एक कोने में बैठी थी। उसके बायें पैर से खून बह रहा था। वह उससे अनजान सी, आँख बंद किये, हाथ जोड़े हुए, बस यही कह रही थी - "माँ बचा लो - माँ बचा लो"। उसका एकलौता 4-5 वर्ष का बेटा शल्य कक्ष में था। मैने वहीं पर उसकी(महिला) मर्हम पट्टी करवायी। 2 घंटे बाद उसके बेटे को आई सी यू में ले जाया गया। जहाँ वह 12 दिन कोमा में रहा। हर बार जब मैं अस्पताल जाता था, उससे जरूर मिलता था। उसकी माँ को देखते ही उनकी वही सूरत याद आ जाती थी। आई सी यू में परिजनों को प्रवेश निशेध था, फ़िर भी हम लोग बीच-बीच में लोगों को रोगियों से मिलवाते थे।
वह माँ जब अपने बेटे के बारे में पूछती थी तो मैं निरुत्तरित हो जाता था। 12 दिन बाद वह बच्चा पंच तत्वों में विलीन हो गया। आज भी माँ का वह चेहरा आँखों की नींद छीन लेता है।

14 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत मार्मिक.

ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाऐं.

अनूप शुक्ल said...

अफ़सोस।

Rajesh Roshan said...

मार्मिक संस्मरण. स्वागत है आपका हिन्दी ब्लॉग जगत में. लिखे और भरपूर लिखे
राजेश रोशन

mamta said...

बहुत ही मर्मस्पर्शी।

ब्लॉग जगत मे आपका स्वागत है।

Abhishek Ojha said...

और लिखो गुरु..

ghughutibasuti said...

ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है। काश आपकी कुछ संवेदनशीलता बम विस्फोट करने वालों को भी मिल जाती।
घुघूती बासूती

Pramod Yadav said...

अंत ने काफी कुछ समाप्त कर गया... हिला दिल और हिली उंगलियां और खुद को लिखने से न रोक पाया... अच्छा लिखते हैं... जारी रखिये

रंजू भाटिया said...

स्वागत है आपका .भावुक कर देने वाला लेख है यह लिखते रहे

डॉ .अनुराग said...

इस तरह के सच परेशां करने वाले होते है ,पर यही जिंदगी है ..इसी मे जीना है....ब्लॉग जगत पर आपका स्वागत है.

Surakh said...

मार्मिक कथा
स्वागत है आपका

Jitendra Dave said...

मार्मिक संस्मरण.Keep it up.

आशीष कुमार 'अंशु' said...

अफ़सोस।

बहुत मार्मिक है

Admin said...

ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है

आपकी लेखनी सशक्त है. शुभकामनायें

संगीता पुरी said...

इतने सुंदर चिटठे के साथ ब्‍लाग जगत में आपका स्‍वागत है। बहुत अच्‍छा लगा आपको पढकर।